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महबूबा और उनकी पार्टी के लिए त्रासदी का साल 

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जम्मू/श्रीनगर | जम्मू एवं कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के लिए साल 2016 की शुरुआत गमी के साथ हुई थी। साल की बिल्कुल शुरुआत में 7 जनवरी को उनके पिता मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का दिल्ली में निधन हो गया था।  और, इसके बाद से राज्य की राजनीति, खासकर मुफ्ती सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के लिए फिर कभी पहले जैसी नहीं रही। पीडीपी को बहुत मेहनत से सईद ने संवारा था। मकसद था क्षेत्रीय राजनीति में अवाम को नेशनल कान्फ्रेंस का विकल्प उपलब्ध कराना। सईद की बेटी व मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने यह तय करने में तीन महीने लगा दिए कि क्या उन्हें देश के सर्वाधिक अशांत राज्य के शासन की बागडोर संभालनी चाहिए।
शुरू में महबूबा पद संभालने को लेकर इतनी उधेड़बुन में पड़ गईं कि उनके पिता के कुछ सहयोगी अन्य विकल्पों तक पर विचार करने लगे थे। पार्टी के अंदर सत्ता के एक अन्य केंद्र के समर्थक कहने लगे कि पार्टी को पांच साल के लिए लोगों ने चुना है। पार्टी सत्ता से बाहर नहीं रह सकती। आखिरकार 4 अप्रैल को महबूबा ने जम्मू एवं कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री के तौर पर पद संभाला। पिता से बेहद लगाव रखने वाली बेटी के लिए साल का आगाज बहुत दर्द के साथ हुआ। और, इसके बाद एक के बाद दूसरी मुसीबतें सामने आती गईं। पहले उन्हें हंदवाड़ा में एक किशोरी से कथित छेड़छाड़ के मामले में आंदोलन का सामना करना पड़ा। श्रीनगर में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में स्थानीय और बाहरी छात्रों के बीच तनाव पैदा हो गया।
प्रशासन ने इस समस्या पर काबू पा लिया। उम्मीद बंधी कि गर्मियां सुकून से गुजरेंगी और टूरिस्ट सीजन अच्छा जाएगा। लेकिन, इसी बीच प्रवासी कश्मीरी पंडितों और पूर्व सैनिकों के लिए कॉलोनी के निर्माण के मामले पर विवाद पैदा हो गया। फिर, जब सभी को लग रहा था कि समस्याओं पर महबूबा ने काबू पा लिया है, 8 जुलाई को आतंकी हिजबुल कमांडर बुरहान वानी सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया। किसी ने नहीं कहा कि बुरहान हिरासत में मारा गया या यह कि वह आतंकी कमांडर नहीं था। इसके बावजूद उसकी मौत के साथ ही कश्मीर में एक ज्वालामुखी जैसा फट पड़ा।
सरकार सच में कोने में दुबक गई। सरकार का एकमात्र निशान सुरक्षा बलों के रूप में नजर आने लगा, जो कश्मीर में एक ऐसे जनविद्रोह का सामना कर रहे थे, जिसका 27 साल के अलगाववादी हिंसा में उन्हें पहले नहीं करना पड़ा था। कश्मीर घाटी थम सी गई। 96 प्रदर्शनकारी मारे गए। 12000 से ज्यादा लोग घायल हो गए। इनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं। सबसे बुरा उन डेढ़ सौ लोगों के साथ हुआ जो सुरक्षाबलों की पैलेट गन से चलाई गोली की चपेट में आ गए। इनके हमेशा के लिए नेत्रहीन होने का खतरा पैदा हो गया। यह एक ऐसी त्रासदी है जो केवल पीड़ितों का ही पीछा नहीं करती रहेगी, बल्कि भगवान ही जानता है कि घाटी के राजनीतिक परिदृश्य पर कब तक एक दाग की तरह चिपटी रहेगी।
उसके बाद से अलगाववादी नेता साप्ताहिक प्रदर्शन का कार्यक्रम जारी करने लगे। घाटी ठप पड़ गई। लेकिन, समय बीतने के साथ अलगाववादियों का अभियान कमजोर पड़ गया और लगातार बंदी ने लोगों के धैर्य को भी तोड़ दिया। पीडीपी के वरिष्ठ नेता व सांसद तारिक हमीद कार्रा ने संसद और पार्टी, दोनों से इस्तीफा दे दिया। वह हालात से निपटने के लिए सरकार के उठाए कदमों से सहमत नहीं थे। पीडीपी-भाजपा सरकार के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को उम्मीद थी कि कानून व्यवस्था के संकट के कारण सरकार चली जाएगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ क्योंकि केंद्र ने महबूबा का साथ दिया और उन्हें हालात से निपटने में सहयोग का पूरा आश्वासन दिया।
धीर-धीरे राज्य सरकार की हैसियत फिर से नजर आने लगी। अब कश्मीर घाटी में बैंक, पोस्ट आफिस और अन्य संगठन सामान्य दिनों की तरह कामकाज कर रहे हैं। कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं सफलतापूर्वक करा ली गई हैं, जिनमें बहुत बड़ी संख्या में बच्चों ने हिस्सा लिया। चार महीने तक अदृश्य रहने के बाद अब गठबंधन सरकार के मंत्री और विधायक फिर से अपने निर्वाचन क्षेत्रों के दौरे कर रहे हैं और लोगों की समस्याएं सुन रहे हैं। मुख्यमंत्री की पूरी कोशिश आंदोलन में नष्ट हो गए समय की भरपाई की है। वह जगह-जगह के दौरे कर लोगों से मुलाकात कर रही हैं।  इस बीच वह बुरहानी के परिवार को चार लाख रुपये बतौर मुआवजा दिए जाने का फरमान जारी कर चुकी हैं और तर्क दे चुकी हैं आतंकवादी और उसके परिवार में फर्क किया जाना चाहिए।  राज्य में अगला विधानसभा चुनाव 2020 में होना है।
साल 2016 के राजनीतिक संकट से महबूबा और उनकी पार्टी किस हद तक निकलने में कामयाब हुई हैं, इसका पता अगले साल के पहले चंद महीनों में ही लग जाएगा।

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