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उप्र की सियासत पर चढ़ा फागुनी रंग

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उप्र की चुनावी फिजा में राजनीति फगुना गई है। राजनेता से लेकर वोटर और सपोर्टर सब बसंती रंग में रंग गए हैं। सियासी पारा अपने चरम पर पहुंचने लगा है। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति धमाल मचा रही है। लेकिन बेचारा मतदाता मौन है। अभी परिणाम आए नहीं कि सरकार बनाने की कवायदें शुरू हो गई हैं। कौन सत्ता संभालेगा और कौन प्रतिपक्ष में जाएगा, यह बात भी सामने आ गई है। हालांकि यह जमीनी हकीकत नहीं है, क्योंकि अभी कई चरण का मतदान बाकी है। लिहाजा, हर दल दूसरे के वोटबैंक में सेंध लगाने को तत्पर दिखता है, यही वजह है कि इस तरह के बयान सामने आ रहे हैं।
प्रेमी युगलों के लिए खास वेलेंटाइन डे बीत गया। लेकिन फिजा में उसकी गंध अब परवान चढ़ रही है। उप्र की राजनीति के लिए भी यह किसी उत्सव से कम नहीं है। यह राजनीति, दलों और राजनेताओं के लिए भी उतना प्रिय विषय है, जितना की युगल जोड़ों के लिए।
राज्य में पहले चरण का मतदान खत्म हो चला है। दूसरे चरण की वोटिंग भी खत्म हो चली है। राजनेता हो या समर्थक, सबका अपना वेलेंटाइन है। किसी को जाति से लव है तो किसी को धर्म से। चुनावी झोली से राम बाहर आ गए हैं और लव, जेहाद बन गया है। अयोध्या में मंदिर निर्माण की दिल से बात हो रही है। दूसरी तरफ रहमान को कब्जाने के लिए फतवे जारी किए गए। कभी कांग्रेस युवराज को खाट पसंद थी और उप्र 27 साल बेहाल दिखता था। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। उप्र को अब यह साथ पसंद है, दोनों की जोड़ी नंबर वन है।
सियासत की झोली से चुनावी मौसम में एक के बाद एक बासंतिक जुमले निकल रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी को इस कड़ाकी सर्दी में कोयले की कालिख, टूजी, स्पेक्ट्रम सब याद आते हैं और दिल्ली में रेनकोट और बाथरूम की याद आती है। साथ में कैराना, मुजफ्फरनगर सब का रंग बरस रहा है।
किसी को फटे कुर्ते से लगाव है तो दूसरे का सूट निशाना है। मतदताओं के ध्रुवीकरण के लिए कोई सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी पर भिड़ा है। दूसरी तरफ उप्र अपने मुख्यमंत्री की भूमिगत रेल, एक्सप्रेसवे और डायल-100 से दिल और उम्मीद लगाए है।
वेलेंटाइन इजहार में जोड़े एक-दूसरे को गुलाब भेंट करते हैं। साथ में अजीब तोहफे भेंट करते हैं। लेकिन यहां तो गुलाब छोड़िए, लव ही जेहाद हो जाता है। उपहार नहीं, सपने बेचे जाते हैं। वैसे, चुनावी घोषणाओं की मंडी तो बेहद सुहानी है। युवाओं के लिए लैपटॉप है। किसी की तरफ से डाटा और वाईफाई है। स्मार्टफोन भी खैरात में हैं। साइकिल भी मिलेगी। किसानों के लिए बिजली, पानी और कर्ज मुफ्त होगा। बुजुर्गो को मोटी पेंशन मिलेगी। वुमन हेल्प की अनगिनत सुविधाएं। लेकिन यह सब चुनावी मौसम में ही क्यों?
मतदाताओं को सिर्फ सब्जबाग दिखाया जा रहा है, जबकि मुद्दों की जमीन खाली और बंजर है। राजनीति सपने बेच रही है। राजनीति में धर्म, जाति अहम मसला बन गया है। चुनावी वेलेंटाइन के मौसम में किसी को मुसलमान तो दूसरे को हिंदू पसंद है। दूसरों को सांप्रदायिकता की खुमारी। लेकिन आम मतदाता खामोश है और राजनीति लव, जेहाद, मुजफ्फरनगर, कैराना में डूब चली है। महिला सुरक्षा, रोजगार, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी गायब है।
सरकारी चीनी मिल बंद पड़ी है। कुटीर उद्योग ठप पड़ गया है। सरकारी मिलों का हाल बदहाल है। सरकारी अस्पतालों और उन पर उपलब्ध सेवाओं की हाल मत पूछिए। पश्चिमी उप्र में गन्ना किसानों को भुगतान नहीं मिल रहा है। पूर्वी उप्र में बनारसी साड़ियां, कालीन, पीतल, काष्ठ उद्योग और चीनी मिलें ठप पड़ी हैं। राजनीति में अपराधियों का बोलबोला है। उजली खादी बाहुबली और दागी छवि वालों की पहली पसंद बन गई है।
पश्चिमी उप्र सांप्रदायिकता की आग को हवा देने की कोशिश हो रही है। बागपत से एक खबर आई है, जिसमें एक परिवारों को पहले चरण के दौरान भाजपा के पक्ष में वोट न करने पर धमकी मिली। उनके घर पर पत्थर डाले गए। घर पर धमकी भरे नारे लिखे गए। वहीं बिजनौर में एक जाट परिवार के बेटे की हत्या को राजनीतिक दल सांप्रदायिक रंग चढ़ाने में लगे हैं। यहां की राजनीति में हिंदू-मुस्लिम और दलित सबसे प्यारा विषय हो गया है। मध्यमवर्गीय परिवार और आम आदमी गायब है। भाजपा को छोड़ सपा-कांग्रेस और बसपा मुस्लिमों को लुभाने की सारी पराकाष्ठाएं लांघती दिखती हैं। भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है, जिस पर पार्टी के स्लोगन सबका साथ सबका विकास पर तीखी टिप्पणियां भी हुईं।
उधर, दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में खुल कर आए हैं। एक टीवी साक्षात्कार के दौरान सपा पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते हुए मुसलमानों से बसपा को वोट करने की अपील की है। उन्हें फतवों की राजनीति से काफी लगाव है। सर्वोच्च अदालत ने धर्म, जाति, भाषा और नस्ल के आधार पर प्रचार करने और वोट मांगने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। अदालत के फैसले बाद चुनाव आयोग भी इस पर सख्त है। लेकिन इस तरह की बयानबाजी के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई होती नहीं दिखती है। सभी दलों ने संवैधानिक चीरहरण किया है और सब इस पर मौन हैं।
सांप्रदायिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण के लिए जाति और धर्म की माला जपी जा रही है। संवैधानिक संस्थाओं की किसी को चिंता नहीं है। सवाल उठता है कि क्या इस तरह की संस्थाओं को खत्म कर देना चाहिए? निश्चित तौर पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक अघोषित टकराहट दिख रही है। यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उचित नहीं है। संविधान और उसकी मर्यादाओं का गला क्यों घांेटा जाता है? आचार संहिता का अनुपालन कराने वाली संस्थाएं मौन क्यों हो जाती हैं? धर्मगुरुओं के खिलाफ कानूनी हथौड़ा कमजोर क्यों पड़ जाता है? सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब नदारद हैं।
हालांकि उप्र में यह सब आम बात है। चुनावों के दौरान भाषा सांप्रदायिक हो जाती है। शब्दों की नित नई परिभाषा गढ़ ली जाती है। चुनावी समर में एक शगूफे छोड़कर शोर मचाया जाता है। मीडिया अपनी बढ़त के लिए उसे ब्रेकिंग बनाती और टीवी हाउसों में बहस छिड़ जाती है। यह राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। लेकिन यह सब यहां खूब होता है। भाजपा को जहां हिंदूवाद और लव जेहाद से प्रेम है, वहीं सपा को मुसलमानों से दिल का गहरा रिस्ता है। कांग्रेस तो उप्र में बेहाल थी, लेकिन अब उसका नजरिया बदल गया है।
उधर, बसपा को दलित और मुसलमान की नई सोशल इंजीनियरिंग पर भरोसा है। जबकि जमीनी मसले और समस्याएं गायब हैं, क्योंकि वह सरकार और सियासी दलों के एजेंडे में कभी नहीं रही।
वोट का खेल अलग होता है। पूरा चुनावी मौसम फगुना गया है। राजनेता से लेकर समर्थक सब बसंती मौसम में वोटरों को लुभाने में लगे हैं। चुनावी रसभंग से सभी अलमस्त हैं। सत्ता हथियाने के लिए सबको जाति-धर्म की रसभंग पिलाई जा रही है।

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