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राष्ट्रकवियों के संयुक्त विचारों के साथ संपन्न हुआ कवि सम्मेलन का तीसरा राष्ट्रीय अधिवेशन

आखिरी दिन कविता की विभिन्न विधाओं पर हुई चर्चा

कविता की विभिन्न विधाओं पर चर्चा के साथ कवि सम्मेलन का तीसरा राष्ट्रीय अधिवेशन समाप्त हुआ। राष्ट्रीय अधिवेशन के अंतिम दिन के प्रथम सत्र में कविसम्मेलन के अकादमिक पक्ष पर चर्चा हुई। तेज नारायण बेचैन ने विषय प्रवर्तन कर सभा को प्रारम्भ किया। वहीं डॉ सरिता शर्मा ने पुरज़ोर ढंग से मंचीय कवियों को अकादमिक रूप से शक्तिसम्पन्न होने की बात उठाई।

डॉ. सरिता शर्मा ने कहा कि मंच पर आने वाले कवियों को कविता की विभिन्न विधाओं का व्याकरणीय ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए जिससे वो साहित्यिक रूप से भी मजबूत हो सकें।

वरिष्ठ मंचीय कवि मनोहर मनोज ने इतिहास में झांकते हुए कहा,”अबसे पचास साल पहले मंच पर सिर्फ कवि होते थे यानि जो कवि थे वही मंच पर थे। कोई अंतर नही था दोनों में किन्तु अब अकादमिक और मंचीय कवि अलग अलग हो चुके हैं। मंचीय कवि यदि अपना प्रकाशन भी कराये तो अकादमिक रूप से भी उनकी पहचान भी मजबूत होगी।”

मुख्य वक्त डॉ कुँवर बेचैन जी ने कहा कि केवल साहित्य समाज का दर्पण नही होता, जब मंचों पर होते हैं तो हम भी समाज के दर्पण होते हैं..हिंदी कवि सम्मेलन बिना सरस्वती वंदना के नहीं होना चाहिए। कवि सम्मेलन को मंदिर होना चाहिए इंडस्ट्री नहीं। इंडस्ट्री अपने नियम लाभ हानि से संचालित होते हैं। गणित से चलते हैं, जबकि कला साधना से शिखर पर पहुंचती है। अपने आपको रेखांकित करने के लिए शॉर्टकट न चुनें। कविता के लिए भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही होने आवश्यक हैं।

इसके बाद खुला मंच शुरू हुआ जिसमे कई लोगों ने कविसम्मेलन से जुडी बातें रखीं। सुरेन्द्र शर्मा ने स्पष्ट कहा कि यदि कोई मीडिया या मंच कवियों की गरिमा से खिलवाड़ करता है तो उसके कार्यक्रमों से बचना चाहिए।

टेलीविज़न के भी तमाम कार्यक्रम जो कवियों को लेकर गरिमाहीन कार्यक्रम बनाते हैं उससे भी बचना चाहिए। खुले सत्र में दिनेश रघुवंशी, संदीप शर्मा, धर्मेन्द्र सोलंकी, पंकज प्रसून, मधुप मोहता, सरिता शर्मा, विनोद राजयोगी, नूतन अग्रवाल ने तमाम विचार बिंदु रखे। सुरेन्द्र शर्मा, हरिओम पवार अरुण जेमिनी, सर्वेश अस्थाना ने इन उत्सुकताओं को शांत किया। मंच का संचालन शशिकांत यादव ने किया।

 

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