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हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए …

अटल बिहारी वाजपेयी की छवि एक सर्वदलीय जननेता के तौर पर देखी जाती है

देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि एक सर्वदलीय जननेता के तौर पर देखी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई राजनेता या मंत्री अटल जी से मिलने आता था, तो वो उसे अपने हाथ से बनाया खाना ज़रूर खिलाते थे।अटल जी को खाना पकाने और खाने के काफी शौकीन थे।

अटल जी की खुरदुरी कविताएं भी समय समय पर भारतीय सियासत और लोकतंत्र को आइना दिखाने का काम करती हैं, वहीं ज़रूरत पड़ने पर सीमा पर खड़े जवानों का उत्साहवर्धन करती हैं।

आज जब अटल दिल्ली के एम्स अस्पताल में मौत से लोहा ले रहे हैं, तो ऐसे में उनकी लिखी यह कविता मानो हर दिल में पनप रही है।

“ठन गई! 
मौत से ठन गई! 

जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। 

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। 

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। 

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। 

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 

मौत से ठन गई।”

-अटल बिहारी वाजपेयी

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