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जानिए कौन हैं लिंगायत, क्यों होना चाहते हैं हिंदू धर्म से अलग

नई दिल्ली| आज कल देश में एक भीड़ संघर्ष कर रही है. संघर्ष अपनी धार्मिक पहचान की मांग को लेकर. ये भीड़ कोई छोटा मोटा सड़क पर चलते लोगों का समूह नहीं है. इस भीड़ में लोगों की संख्या 75,000 है. इस प्रभावशाली भीड़ की आबादी राज्य में 18% प्रतिशत है , प्रभावशाली इसलिए क्यूंकि इसी भीड़ ने राम कृष्ण हेगड़े से लेकर बीएस येदुरप्पा को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया और ज़रूरत पड़ने पर धरातल भी दिखाया.
ये वही भीड़ है जिसके पुरोहित के सामने सिद्धारमैया सरकार के कुछ मंत्री आने वाले चुनाव को लेकर लाइन में खड़े हैं. आज आपको सुनायेंगे कहानी कर्नाटक की राजनीतिक हवा को पूरी तरह से काबू में रखने वाली इस संघर्षशील भीड़ की, आज कहानी ‘लिंगायत संप्रदाय’ की. कर्नाटक की सीमा पर एक जिला है ‘बीदर’. ये जिला एक तरफ से महाराष्ट्र और एक तरफ से तेलंगाना से घिरा हुआ है. इस जिले में कुछ दिनो पहले एक भारी भीड़ जमा हुई. BBC की ख़बर के मुताबिक इस भीड़ में 75,000 लोग आये थे. इस भीड़ में मौजूद लोग अपनी अलग धार्मिक पहचान की मांग कर रहे थे.
ये लोग लिंगायत संप्रदाय के थे. लिंगायत को कर्नाटक की ऊँची जातिओं में गिना जाता है. कर्नाटक में इनकी आबादी 18% है और बगल के राज्य जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश में भी इनकी तादात अच्छी खासी है. लिंगायत पहले हिन्दू धर्मं का ही पालन करते थे लेकिन फिर बाद में इन्होने हिन्दू धर्म से अलग होकर अपना अलग संप्रदाय बनाया. अब लिंगायतों की मांग है कि इनके संप्रदाय को भी अलग धर्म की मान्यता दी जाय. इनकी ये मांग राजनैतिक दृष्टिकोण से इतनी मायने क्यों रखती है कि खुद मुख्यमंत्री केंद्र सरकार को चिठ्ठी लिख रहें है इसके लिए हमने इनका इतिहास छान मारा.
हमें जो पता चला आपको बताते हैं. बारवीं शताब्ती से पहले लिंगायत लोग हिन्दू धर्म को ही मानते थे, मगर 12वीं शताब्ती में समाज सुधारक बासवन्ना ने हिन्दू धर्म की कुछ रीतियों को कुरीतियाँ बताते हुए असहमति जता कर लिंगायतों के लिए एक अलग समाज की स्थापना की. बासवन्ना खुद एक ब्राह्मण थे मगर हिन्दू धर्म की कई प्रमुख रीतियों से असहमति रखते थे. वो कहते थे कि इंसान को उसके जन्म नहीं बल्कि कर्म के आधार पर बांटना चाहिए, हत्या जैसे नीच कर्मो को करने वाला व्यक्ति सबसे नीच जाति का होना चाहिए. तब से लेकर लिंगायत समाज उन्ही के बताये आदर्शों पर चलता आया है, आदर्श जैसे, वेदों का खंडन, मूर्ती पूजा का विरोध, देवपूजा, सतीप्रथा, जातिवाद, महिलाओं के साथ असमानता की ख़िलाफ़त. इन्ही कुछ कारणों के चलते लिंगायत लोग हिन्दू धर्म से अलग हो गये.
वीरशैव यानि शिव का परम भक्त. वीरशैव भी कर्नाटक और दक्षिण भारत जैसे आन्ध्र प्रदेश, केरल की एक जाति है. कई लोगों का मानना है कि लिंगायत और वीरशैव एक ही है लेकिन प्राचीन जातिओं के जानकार बताते हैं कि नहीं दोनों अलग- अलग है. जिसके तथ्य स्वरुप वो बताते हैं कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व, बासवन्ना के उदय से भी पहले से है और जहां एक तरफ वीरशैव शिव के परम भक्त होते है वहीँ लिंगायत शिव की पूजा नहीं करते. लेकिन लिंगायत शिव के प्रति अपनी आस्था को प्रदर्शित करने के लिए अपने शरीर पर एक गेंदनुमा गोल आकृति को धागे से बाँध कर रखते हैं जिसे वो ‘इष्टलिंग’ कहते है. लिंगायतों के अनुसार ये इष्टलिंग उनकी आंतरिक चेतना का प्रतीक है.
बात सत्तर के दशक की जब लिंगायत समाज कर्नाटक की एक ऊँची किसान जाति वोक्कालिगा के साथ मिल कर सियासत और सत्ता में समझौता कर रहे थे. लेकिन इंदिरा कांग्रेस के नेता और इंदिरा गाँधी के वफादार डी. देवराज उर्स ने किसी मंझे हुए राजनेता की तरह लिंगायत और वोक्कालिगा की राजनीतिक एहिमियत को तोड़ दिया. इसका फायदा देवराज को 1972 के चुनाव में मिला जब उन्होंने पिछड़ी जातियों, दलित और अल्पसंख्यकों के समीकरण से सरकार बनाई और 1980 तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे. 80 का दशक आया लिंगायत अपना सबक और राजनीति सीख चुके थे और उन्होंने पहले कांग्रेस फिर इमरजेंसी के बाद भाजपा में शामिल हो चुके राम कृष्ण हेगड़े को अपना नेता चुन लिया.
ब्राह्मण होने के कारण हेगड़े लिंगायतों की वजह से ही मुख्यमंत्री बन पाए. लेकिन 1984 के चुनावी नतीजों के बाद लिंगायत समझ चुके थे कि भारतीय जनता पार्टी अभी राजनितिक स्थिरता को प्राप्त नहीं कर पा रही है. इसीलिए उन्होंने अपना पाला बदल लिया. इस बार लिंगायतों के नेता बने कांग्रेस से भाजपा, भाजपा से फिर कांग्रेस में आये राम कृष्ण हेगड़े के साथी वीरेंद्र पाटिल. एक समय पर हेगड़े और पाटिल को ‘लव-कुश’ की जोड़ी कहा जाता है. 1989 में वीरेंद्र पाटिल लिंगायतों के समर्थन से ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे मगर अपनी इमानदारी और तगड़ी लोकप्रियता के बावजूद वीरेंद्र पाटिल को कर्नाटक के शीर्ष की गद्दी छोड़नी पड़ी.
1990 में कर्नाटक के कुछ हिस्सों में दंगे हुए जिसमे खबर आई कि ये  दंगे कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा सुनियोजित किये गये हैं जो वीरेंद्र पाटिल से खुश नहीं हैं इसी के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने एअरपोर्ट पर से ही उन्हें सेवा विहीन कर दिया. और इस प्रकार एक बार फिर से लिंगायत समाज के नेता बने राम कृष्ण हेगड़े जिसका फायदा केंद्र में अटल बिहारी वाजपई को मिला और वो प्रधानमंत्री बने. 2004 में हेगड़े के निधन के बाद लिंगायतों ने बीएस येदुरप्पा को अपना नेता चुना और 2008 वो भी कर्नाटक की शीर्ष गद्दी पर बैठे.
2013 में जब बीजेपी ने अपना मुख्यमंत्री कैंडिडेट बदला तो लिंगायतों ने भी सियासत का रुख बदल दिया और भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. वर्तमान में कर्नाटक की गद्दी पर कांग्रेस के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री के रूप में काबिज़ हैं. लिंगायतों की राजनैतिक अहमियत इस बात से आंकी जा सकती है कि 80 के दशक से ही लिंगायतों ने जिसे अपना नेता चुन लिया उसने एक बार मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने का सुख ज़रूर प्राप्त किया. भले ही फिर वो एक साल के लिए ही क्यों न हो. जिसके फलस्वरूप आज भी कर्नाटक सरकार के कुछ मंत्री लिंगायतों के पुरोहित के सामने हाथ फैलाये और मुख्यमंत्री लिंगायतों की भीड़ के साथ खड़े हैं क्योंकि चुनाव 2018 में ही होना है.  राजनीति के अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक लिंगायत समाज चुनाव के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है या सत्ता की रस्सी को थामे हुए है ये तो नहीं पता लेकिन आने वाले समय ये भारी संघर्षशील भीड़ क्या रुख लेती है देखने वाली बात होगी क्योंकि महाराष्ट्र किसान मार्च को देखने के बाद यकीन करना पड़ता है कि भीड़ व्यवस्था और समाज की शक्ल को बदल सकती है.
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