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उत्तराखंड: क्यों ज़रूरी है Uniform Civil Code? जानें क्यों हो रहा इसका विरोध ?

यूनिफार्म सिविल कोड क्या है ? क्यों इसका विरोध हो रहा है। इसका क्या फायदा है। कौन सा पहला राज्य है लागू करने वाला

उत्तराखंड में नई सरकार बनते ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 24 मार्च 2022 गुरुवार को ऐलान किया कि चुनाव में किए वादे के मुताबिक प्रदेश में समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी। मुख्यमंत्री ने जनता से किया अपना वादा पूरा करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर एक कमेटी बनाई है। जो यूनिफॉर्म सिविल कोड का ड्राफ्ट तैयार करेगी। राज्य मंत्रिमंडल ने इस प्रस्ताव को हरी झंडी भी दे दी।

बता दें कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और भाजपा ने चुनाव से पहले जनता से वादा किया था कि सरकार आने के बाद वो राज्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करेंगे। हालांकि इस मुद्दे पर पहले भी कई बार बहस हुई है लेकिन हर बार कुछ नेता इस तरह मामलों पर अपनी सियासी रोटियां सेंकने के बाद ठंडे बस्तों में डाल देते हैं। धामी के इस फैसले का जहां एक तरफ समर्थन हुआ तो वहीं दूसरी तरफ विरोध में तुरंत प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं। हालांकि, इसकी उम्मीद भी की जा रही थी। अब ऐसे में आपके मन में भी सवाल उठ रहा होगा कि आखिर ये बला है क्या? जिसका नाम बार-बार खबरों में देखने और सुनने को मिलता है। तो आइये जानते हैं इस रिपोर्ट में –

सबसे पहले हम जानेंगे कि आखिर यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है ?

तो आपको बता दें कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को हिंदी भाषा में समान नागरिक संहिता कहा जाता है। इसका मतलब यह होता है कि देश के हर शहरी के लिए एक जैसा कानून लागू हो। इसके तहत एक शहरी किसी भी धर्म-मज़हब से संबंध रखता हो, सभी के लिए एक ही कानून होगा। इसको धर्मनिर्पेक्ष कानून भी कहा जा सकता है। अब सोच रहे होंगे कि देश का कानून तो सभी के लिए बराबर है, तो हां आप सही सोच रहे लेकिन इसका मतलब है कि विवाह, तलाक और जमीन जायदाद के मामलों में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून होगा। हिंदू धर्म के लिए अलग, मुस्लिमों का अलग और ईसाई समुदाय का अलग कानून है। समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून होगा।

धामी के फैसले का विरोध

कांग्रेस नेता वसीम जैदी ने धामी के फैसले पर आपत्ति जताई कि इस कानून से नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हानि होगी। हालांकि, बीजेपी नेता शादाब शम्स ने जैदी की आशंका को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने उलट दावा करते हुए कहा कि जिन नागरिकों के अधिकार प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है, दरअसल समान नागरिक संहिता से वो और सशक्त होंगे। यह फैसला अधिकारों को खतरे में डालने वाला नहीं बल्कि अधिकार देने वाला है।

आखिर क्या है धामी का मकसद?

अब सवाल है कि उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने की दरकार क्यों पड़ी?

दरअसल, मुख्यमंत्री धामी का मानना है कि उत्तराखंड में जल्द से जल्द समान नागरिक संहिता लागू करने से राज्य में सभी वर्ग के लोगों के लिए समान अधिकारों को बढ़ावा मिलेगा। यह सामाजिक सद्भाव को बढ़ाएगा। लैंगिक न्याय को बढ़ावा देगा। महिला सशक्तीकरण को मजबूत करेगा। राज्य की असाधारण सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पहचान और पर्यावरण की रक्षा करने में मदद करेगा। उन्होंने कहा, ‘हम एक उच्च स्तरीय कमिटी बनाएंगे और वो कमिटी इस कानून का एक ड्राफ्ट तैयार करेगी और हमारी सरकार उसे लागू करेगी। मंत्रिमंडल में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया है। अन्य राज्यों से भी हम अपेक्षा करेंगे कि वहां पर भी इसे लागू किया जाए।’

ये कानून भारत में कब पहली बार आया

समान नागरिक संहिता की शुरुआत ब्रितानी राज के तहत भारत में हुई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट में अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून की संहिता में एकरूपता लाने की जरूरत की बात कही थी। हालांकि इस रिपोर्ट ने तब हिंदू और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इससे बाहर रखने की सिफारिश की थी।

अब जानते हैं कि ये मुद्दा भाजपा ने पहली बार कब उठाया गया था ?

दरअसल, समान नागरिक संहिता एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। 1989 के आम चुनाव में पहली बार भाजपा ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया था। इसके बाद 2014 के आम चुनाव और फिर 2019 के चुनाव में भी भाजपा ने इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में जगह दी। भाजपा का मानना है कि जब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड को अपनाया नहीं जाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं आ सकती।

इसके अलावा समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट तक, सरकार से सवाल कर चुकी है। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई। वहीं, पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा था कि समान नागरिक संहिता जरूरी है।

वहीं वर्तमान समय में हर धर्म के लोगों से जुड़े मामलों को पर्सनल लॉ के माध्यम से सुलझाया जाता है। हालांकि पर्सनल लॉ मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का है जबकि जैन, बौद्ध, सिख और हिंदू, हिंदू सिविल लॉ के तहत आते हैं।

समान नागरिक संहिता से आखिर क्यों डरता है मुस्लिम समुदाय?

समान नागरिक संहिता नहीं होने के कारण विवाह, तलाक, गोद लेने, जमीन, संपत्ति और विरासत जैसे मामलों में धार्मिक आधार पर काफी भेदभाव हो रहा है। हिंदू महिलाओं को इन मामलों में काफी अधिकार मिले हुए हैं जबकि मुस्लिम महिलाएं कई अधिकारों से वंचित रह जाती हैं। अगर समान नागरिक संहिता आ गई तो मुस्लिम महिलाओं को भी इन मामलों में हिंदू महिलाओं जैसे ही अधिकार मिलेंगे। अभी देश में धर्म आधारित मुस्लिम पर्सनल लॉ, इसाई पर्सनल लॉ और पारसी पर्सनल लॉ है। यूनिफॉर्म सिविल कोड से ये सभी खत्म हो जाएंगे और सभी धर्मों को एक समान अधिकार हासिल होंगे।

यही कारण है कि मुस्लिम समुदाय इससे दूर रहना चाहता है। मुसलमान इसे धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर आघात बताने की कोशिश करते रहते हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 के तहत भारत के हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया। अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सभी व्यक्ति को समान रूप से अंतरात्मा की स्वतंत्रता और सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता एवं स्वास्थ्य के लिए धर्म के स्वतंत्र रूप से प्रचार करने का अधिकार है। अनुच्छेद 26 कहता है कि सभी संप्रदाय धार्मिक मामलों का अपने हिसाब से प्रबंधन कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय इन्हीं अधिकारों का हवाला देकर आशंका जताते हैं कि समान नागरिक संहिता की आड़ में उनके धार्मिक अधिकारों पर हमला किया जा सकता है।

जानकार बताते हैं कि हर धर्म में अलग-अलग कानून होने से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। कॉमन सिविल कोड आ जाने से इस मुश्किल से निजात मिलेगी और अदालतों में सालों से लंबित पड़े मामलों के निपटारे जल्द होंगे। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि यह सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। इस पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को बड़ी आपत्ति रही है। उनका कहना है कि अगर सबके लिए समान कानून लागू कर दिया गया तो उनके अधिकारों का हनन होगा।

उत्तराखंड पहला राज्य लागू करने वाला

अब तक आपने अलग-अलग राज्यों के अलावा केंद्र सरकार की तरफ से यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की बात सुनी होगी लेकिन इस पर आगे कोई अमल नहीं हो पाया है। देश का सिर्फ एक ही राज्य ऐसा है जहां पर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। उस राज्य का नाम है गोवा। इस राज्य में पुर्तगाल सरकार ने ही यूनिफार्म सिविल कोड लागू किया था। साल 1961 में गोवा सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड के साथ ही बनी थी। ऐसे में उत्तराखंड पहला ऐसा राज्य बन गया है, जिसकी कैबिनेट ने सिविल कोड लागू करने का निर्णय लिया है।

क्या कहते हैं कानूनविद ?

वरिष्ठ कानूनविद आरएस राघव का कहना है कि निश्चित तौर पर अनुच्छेद-44 के तहत राज्य सरकार अपने राज्य के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बना सकती है लेकिन इसे लागू कराने के लिए केंद्र को भेजना होगा। इसके बाद राष्ट्रपति से मुहर लगने पर ही यह लागू हो सकती है। वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता चंद्रशेखर तिवारी का कहना है कि संविधान की संयुक्त सूची में अनुच्छेद-44 के तहत राज्य को समान नागरिक संहिता बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसके बाद अगर केंद्र सरकार कोई यूनिफॉर्म सिविल कोड लेकर आती है तो राज्य की संहिता उसमें समाहित हो जाएगी।

दुनिया के कौन-कौन से देशों में लागू है समान नागरिक संहिता?

बता दें कि तुर्की, सूडान, इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, इजिप्ट और पाकिस्तान में यूनिफार्म सिविल कोड पहले से लागू है।

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